नवगीत काव्य समारोह

'शब्दम्' की स्थापना की प्रथम वर्षगांठ पर 'नवगीत काव्य समारोह' का आयोजन हिन्द परिसर में किया गया। शब्दम् के तत्वावधान में आयोजित इस ''नवगीत काव्य समारोह'' में रचनाकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने समय का सफलतापूर्वक रेखांकित किया और स्थापित किया कि यदि कोई रचना पूरी संवेदनशीलता और ईमानदारी से लिखी गयी हो तो वह अपना प्रभाव छोड़ती है तथा एक जन संवाद स्थापित करती है।

प्रारम्भ में श्रीमती किरण बजाज ने सभी रचनाकारों के साथ माँ सरस्वती के चित्रपट पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्वलन कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया।

सरस नवगीतकार यश मालवीय ने निराला जी की सुप्रसिद्ध वाणी वन्दना ''...वर दे वीणा वादिनी, वर दे.......'' प्रस्तुत कर काव्य समारोह का प्रारम्भ किया।

श्री विनोद श्रीवास्तव ने अपने कई गीत प्रस्तुत करते हुए श्रोताओं पर गहरा प्रभाव छोड़ा। यथा- ''...नदी के तीर से गुजरे, नदी के बीच से गुज़रे, कहीं भी तो लहर की बानगी हमको नहीं मिलती....'' तथा ''....बादलों ने तो कहा आओ चलें घर छोड़कर, चाहकर भी हम निकल पाये न पिंजरे तोड़कर......'' रचना ने श्रोताओं को गहराई तक प्रभावित किया।

सुधांषु उपाध्याय ने सहज भाषा में नये बिम्बों का प्रयोग करते हुए कहा ''.... घर में इतनी चीजें हैं, चीजों में घर कहाँ गया, चिड़िया चलती है पैरों से, पर कहाँ गया.....'' आज की विसंगतियों और आम आदमी की त्रासदी को रेखांकित किया। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए लखनऊ से आये डा0 सुरेश ने अपना चर्चित गीत ''बंजारे'' प्रस्तुत कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।

काव्य समारोह का संचालन कर रहे हिन्दी के युवा कवि यश मालवीय ने अपनी ''पिता'' शीर्षक रचना प्रस्तुत कर लोगों के संवेदनाओं में एक नयी लहर पैदा कर दी। इसके अतिरिक्त उन्होंने कई अन्य रचनायें भी प्रस्तुत कीं। काव्य समारोह को आगे बढ़ाते हुए डा0 माहेश्वर तिवारी ने अपनी रचना पाठ का आरम्भ ''.........घर में जूठे बासन बोले, सुबह हो गई है........ फूलों ने दरवाजे खोले, सुबह हो गई है......'' से किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने कई भाव स्थितियों के अन्य गीत भी प्रस्तुत किये। यथा ''...एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है, खाली छत और दीवारों को घर कर देता है......''।

शब्दम् की परिकल्पना से जुड़ी और उसकी प्रेरणा स्रोत श्रीमती किरण बजाज ने जल को केन्द्र में रख कर एक महत्वपूर्ण रचना ''पानी की कहानी'' प्रस्तुत करते हुए कहा कि -''......जब न होगा पानी, क्या होगी कहानी, न खेत न खलिहान, न गंगा महारानी......'' जिसने छन्द मुक्त होते हुए भी श्रोताओं को गीतात्मकता का सुख दिया। काव्य समारोह के अन्त में अध्यक्षता कर रहे सुप्रसिद्ध कवि श्री सोम ठाकुर ने अपनी रचना ''....आ गये किसी द्वीप में हम, देह पत्थर हो गयी है, सर्प गंधा एक डाकिन साथ में फिरने लगी......'' तथा ''...छोड़कर फिर बोलती खामोशियों का हाशिया, दृष्टि से तुमने मुझे बौना किया।.......'' एवं ''.....बिखरे पीले चावल कल के, कमरों में खालीपन आज.....'' प्रस्तुत की।

मध्य रात्रि तक चले इस काव्य समारोह में रचनाओं और उनकी प्रस्तुति ने श्रोताओं को बांधे रखा और उनकी प्रतिक्रिया थी कि किसी काव्योत्सव में एक साथ इतनी स्तरीय रचनायें सुनने का अवसर लम्बे अन्तराल के बाद मिला है।

नवगीत काव्य परम्परा : निराला से यश मालवीय तक :- निराला की कविता :-

बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु।
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु।
यह घाट वही जिस पर हँस कर
वह कभी नहाती थी धँस कर
ऑंखें रह जाती थीं फँस कर
कँपते थे दोनों पाँव, बन्धु।

बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु।
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु।

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बन्धु।

बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु।
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु।

यश मालवीय की कविता:-
ऍंगुली-ऍंगुली छुवन अगहनी।
कुहरे पर गोटा किरनों का,
शीत चिरैया बैना बोहनी॥
केना सजा, सजा है ऑंगन।
ऐपन पर सिन्दूरी थिरकन।
मलिन धूप का उबटन तन पर।
मुस्काती है उशा दुलहिनी॥
कढ़े हुए रूमाल सरीखा।
अभी-अभी सूरज था दीखा।
नीम शाल ओढ़े बादल का।
दाँत बजाती टहनी-टहनी।
धुऑं-धुऑं केतली साँस की।
चाय सखी हो गयी प्यास की।
मेरे उन अधरों ने छेड़ी
सिरहाने ही सबद रमैनी।

नवगीत काव्य समारोह में श्री विनोद श्रीवास्तव द्वारा पढ़ा गया मुक्तक एवं रचना अंश:-

धर्म छोटे-बड़े नहीं होते
जानते तो लड़े नहीं होते
चोट तो फूल से भी लगती है
सिर्फ पत्थर कड़े नहीं होते।

नदी फिर नदी अचानक सिहर उठी
यह कौन छू गया साँझ ढले।

संयम से बहते ही रहना
जिसके स्वभाव में शामिल था
दिन रात कटाओं के घर में
ढहना ही उसका प्रतिफल था।

वह नदी अचानक लहर उठी
यह कौन छू गया साँझ ढले।
छू लिया किसी सुधि के क्षण ने
या छंदभरी पुरवाई ने
या फिर गहराते सावन ने
या गंधमई अमराई ने

सोते पानी में भंवर उठी
यह कौन छू गया साँझ ढले।

shabdam hindi prose poetry dance and art

previous topic next article